02/ यह उल्लेखनीय है कि प्रकरण में इस न्यायालय के तत्कालीन पीठासीन अधिकारी द्वारा दिनाँक 29.01.2010 को निर्णय पारित करते हुए, वादीगण के वाद को निरस्त किया गया था, जिस पर माननीय अपीलीय न्यायालय द्वारा आदेश दिनाँक 07.07.2015 के अनुसार, उक्त निर्णय एवं आज्ञप्ति को अपास्त करते हुए, प्रकरण इस न्यायालय को इस निर्देश के साथ प्रतिप्रेशित किया कि ” उभय पक्ष के संयुक्त परिवार का वंश वृक्ष किस प्रकार है
उभय पक्ष के जातिगत रिति रिवाज व प्रथा के अनुसार महिलाओं को भी हक व अधिकार प्राप्त होता है ?, उभय पक्ष के मध्य कब बंटवारा हुआ था ?, बंटवारा में किसको-किसको, कहाँ-कहाँ की कौन-कौन और किस-किस खसरा नंबर की कितनी-कितनी भूमि प्राप्त हुई थी ? स्व. जरहाराम छुही मिट्टी का व्यवसाय तथा उत्तरवादी/प्रतिवादी क्रमांक 1, गंगाराम कपड़े का व्यवसाय कहाँ-कहाँ करते थे ?, वादभूमि को स्व. जरहाराम के नाम पर कब-कब किससे कितने में क्रय किया था ? ” इस संबंध में स्पष्ट अभिवचन करने व साक्ष्य पेश करने का अवसर प्रदान कर गुण-दोष के आधार पर प्रकरण का निराकरण किया जावे। माननीय अपीलीय न्यायालय के उक्त आदेश के अनुपालन में, उभय पक्ष को आवश्यक अभिवचन एवं साक्ष्य हेतु पर्याप्त अवसर देकर, एवं उभय पक्ष को सुने जाने के पश्चात् यह निर्णय दिया जा रहा है।
03/ प्रकरण में निम्नलिखित स्वीकृत तथ्य है:-
क/ प्रकरण में वादीगण एवं प्रतिवादीगण का वंश वृक्ष स्वीकृत तथ्य है, जो कि निम्नानुसार है -
उपरोक्तानुसार उभय पक्ष के अभिवचनों के आधार पर संयुक्त परिवार के वंश वृक्ष को सुविधा की दृष्टि से दर्शा दिया गया है। इसलिए माननीय अपीलीय न्यायालय द्वारा प्रतिप्रेशित किए गए बिंदु क्रमांक 1 के अनुपालन में वंश वृक्ष को स्पष्ट रुप से दर्शित किया गया।
ख/ प्रकरण में यह भी स्वीकृत तथ्य है कि वाद प्रस्तुति दिनाँक 16.01.2008 के पूर्व जरहाराम की मृत्यु हो चुकी थी।
ग/ प्रकरण में यह भी स्वीकृत तथ्य है कि वादभूमि जरहाराम आ. भैयाराम जाति गोंड़ के नाम पर राजस्व अभिलेख में दर्ज है।
घ/ गजानंद ने अपने पिता जहराराम की मृत्यु हो जाने पर, जरहाराम के उत्तराधिकारी के रूप में, वादभूमि के नामान्तरण हेतु, अतिरिक्त तहसीलदार राजहरा के समक्ष आवेदन प्रस्तुत किया था, जिसमें राजस्व न्यायालय ने प्रारंभिक तर्क सुनने के पश्चात् दिनाँक 04.01.2008 को वादभूमि पर, जरहाराम के वारिसों का नाम दर्ज करने का आदेश दिया था। इसके अतिरिक्त प्रकरण में अन्य केाई उल्लेखनीय स्वीकृत तथ्य विद्यमान नहीं है।
04/ स्वीकृत तथ्यों के अलावा वादीगण का वाद संक्षेप में इस प्रकार है कि उभयपक्ष गोंड़ जनजाति के हैं, जिन पर हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 लागू नहीं होता और वे अपने रीति-रिवाजों के अनुसार शासित होते हैं। गोंड़ जाति में संयुक्त हिंदु परिवार की संरचना की जाती है और सहदायिकी का गठन किया जाता है। संयुक्त परिवार की आय से क्रय की गई सम्पत्ति को पैतृक सम्पत्ति माना जाता है। महिला सदस्य को परिवार में पुरुष सदस्य ना होने पर हक व हिस्सा प्राप्त होता है, अन्य दशा में महिला सदस्य, पैतृक संपत्ति में मात्र बालिग होने तक परवरिश एवं शादी ब्याह का खर्च ही प्राप्त कर सकती है। गोंड़ जाति के संयुक्त परिवार में विघटन तब तक नहीं माना जाता, जब तक कि आपसी सहमति के आधार पर तथा चार सियानों के बीच या समाज प्रमुखों के बीच संयुक्त परिवार का बंटवारा या अन्य प्रकार से विघटन ना कर दिया जावे। आपसी व्यवस्था के तहत् अलग-अलग रहने, खान-पान करने, या काश्त करने से संयुक्त परिवार का विघटन नहीं होता है। उपरोक्त रिवाज प्राचीन काल से निरंतर चले आ रहा है और आज भी प्रचलित है, जिसके कारण यह कानूनी बल रखता है।
05/ वादी का अपने वाद-पत्र में आगे यह अभिवचन है कि उपभपक्ष के मध्य दिनाँक 27.03.2003 को लिखित में वादभूमि सहित समस्त पैतृक सम्पत्ति एवं पैतृक सम्पत्ति की आय से क्रय की गई सम्पत्ति को मिलाकर, आपसी सहमति के आधार पर गाँव के प्रमुखों के मध्य पंच बँटवारा किया गया। इससे पूर्व पक्ष कारगणों के मध्य या उनके बुजुर्गों के मध्य वादभूमि सहित किसी भी भूमि का आपसी बँटवारा नहीं किया गया था तथा खाना-पीना, उठना-बैठना एवं रहना-बसना अलग होने के बावजूद बंटवारा नहीं होने के कारण शामिलात परिवार था। चूँकि दिनाँक 27.03.2003 के बंटवारानामा के अनुसार प्रतिवादी गजानंद सहित सभी प्रतिवादी 1 से 31 के द्वारा बंटवारा से इंकार कर दिया गया, इस कारण वर्तमान में उभयपक्ष की समस्त सम्पत्ति उनकी श ामिलात सम्पत्ति मानी जावेगी तथा उनका परिवाद आज भी बंटवारा के अभाव में शामिलात है। उपभपक्ष के पूर्वज भैयालाल वगैरह एक साथ रहकर उठना-बैठना, खाना-पीना, कास्त आदि करते थे तथा उक्त सभी भाइयों ने मिलकर उपरोक्त प्रकरण की वादभूमि को क्रय किया और सुविधा के लिये यह शर्त रखी कि बँटवारा के समय मिल-बांटकर, बंटवारा किया जावेगा। उनमें आपसी प्रेम रहने के कारण किसी के द्वारा विरोध नहीं किया गया। उपरोक्त प्रकरण में वादभूमि के अलावा ग्राम सरकाटोला, सिधोला में भी पैतृक सम्पत्ति की आय से सभी भाइयों के द्वारा और भी भूमि क्रय की गई थी, जो जरहाराम के पुत्र गजानंद एवं देवकी बाई सहित परिवार के अन्य सदस्यों के नाम वर्तमान में दर्ज है। इस प्रकार जरहाराम और उसके परिवार के नाम पर दर्ज सम्पत्ति, परिवार की पैतृक सम्पत्ति है। उनकी स्वअर्जित संपत्ति नहीं है। अतः उपरोक्त सम्पत्ति 05 दादा पूर्वजों के हिस्से के अनुसार प्रत्येक के 1/5 हिस्से होंगे। जिन्हें अनुतोष में प्राप्त होने वाले उत्तराधिकारियों के रूप में दर्शाया गया है।
06/ वादी ने आगे यह कथन किया है कि दिनाँक 27.05.2003 के पूर्व जरहाराम की मृत्यु हो जाने से उभय पक्ष के बीच वादभूमि सहित अन्य भूमि को 05 भागों में विभाजित किये जाने हेतु ग्राम सिंघोला में बैठक आयोजित की गई थी, जिसमें गजानंद, रामानंद सहित कुछ अन्य हिस्सेदार भी अपने परिवार के मुखिया के रूप में उपस्थित रहे। अन्य सदस्य चूँकि अलग-अलग ग्रामों में दूरदराज में निवास करते थे, इसलिये वे उपस्थित नहीं हो सके और उनके दूर दराज रहने के कारण उनका राजस्व अभिलेखों में विभाजन नहीं हो सका। मई 2007 में गजानंद द्वारा उपरोक्त लिखित बंटवारा के विपरीत जाकर, हल्का पटवारी के पास, पिता की स्वअर्जित सम्पत्ति बताते हुये उस पर अपना नाम नामांतरित कराने हेतु आवेदन दिया, जिसकी जानकारी हेाने पर सुखुराम (मृत) एवं गंगाराम द्वारा, खानदानी सम्पत्ति होना कहते हुये आपत्ति की गई। आपत्ति होने के कारण हल्का पटवारी के द्वारा धारा 109, 110 भू-राजस्व संहिता के तहत अतिरिक्त तहसीलदार राजहरा को प्रकरण प्रेशित किया गया। अतिरिक्त तहसीलदार महोदय, राजहरा द्वारा 15.06.2007 को इश्तहार जारी कर आपत्ति मंगाई गई। वादीगण द्वारा अपनी उपस्थिति दर्ज कराकर, 22.09.2007 को अपना जवाब प्रस्तुत किया गया और सम्पत्ति पैतृक कही गई। अतिरिक्त तहसीलदार महोदय राजहरा द्वारा, प्रारंभिक आपत्ति पर तर्क सुनने के पश्चात् दिनाँक 04.01.2008 को प्रकरण में बिना किसी पक्ष का साक्ष्य अंकित किये एवं दस्तावेज प्रस्तुत करने का अवसर दिये बिना तथा सुनवाई का अवसर दिये बिना, आपत्ति निरस्त कर, जरहाराम के स्थान पर, आवेदकगण का नाम दर्ज करने का आदेश दिया गया एवं यह कहा गया कि अनावेदकगण अर्थात वादीगण चाहें तो, व्यवहार न्यायालय में घोषणा प्राप्त कर सकते हैं। आदेश से क्षुब्ध होकर वादीगण द्वारा, अतिरिक्त तहसीलदार महोदय के दिनाँक 17.01.2008 के आदेश के क्रियान्वयन पर स्थगन प्राप्त कर, प्रतिवादीगण के विरूद्ध यह व्यवहार वाद संस्थित किया गया है। जिस पर विधिनुसार मूल्यांकन कर, उचित न्याय शुल्क चस्पा कर, समयावधि के अंदर वाद-कारण सहित यह वाद प्रस्तुत किया गया है। उपरेाक्त आधारों पर, वादीगण द्वारा वादपत्र में चाहे गए अनुतोष प्रदान करने का निवेदन किया गया है।
07/ प्रकरण में प्रतिवादी क्रमांक 1 से 14, 18 एवं 23 की ओर से जवाबदावा प्रस्तुत किया गया है। शेष प्रतिवादीगण अनुपस्थित होने से उनके विरुद्ध एकपक्षीय कार्यवाही की गई है। प्रतिवादीगण की ओर से प्रस्तुत जवाबदावा में स्वीकृत तथ्यों के अलावा शेश अभिवचन से इंकार किया है, और उन्होंने उभयपक्ष के पूर्वजों अर्थात पिता एवं दादा के मध्य 60 वर्ष पूर्व से सम्पत्ति का आपसी बंटवारा कर, पृथक-पृथक गांव में निवास करते हुये खान-पान, रहन-सहन, एवं कास्तकारी करना बताया हैं। उन्होंने वाद भूमि को जरहाराम की स्वअर्जित सम्पत्ति होना बताया है, जो जरहाराम द्वारा अपने जीवनकाल में ग्राम मरकाटोला, विकासखण्ड गुरूर में निवास करता था और छुई खदान का ठेका कार्य करते हुये, अपनी निजी आय से अपनी पत्नी श्रीमती देवकी बाई, प्रतिवादी क्रमांक 6 के नाम से जमींन खरीदा था। जरहाराम की पूर्व पत्नी और प्रतिवादी गजानंद की माँ-गणेशबाई के नाम से भी जरहाराम ने ग्राम सिधोला में सम्पत्ति खरीदा थी। गजानंद और गणेशाबाई सिंघोला में ही रहते थे। गजानंद, ग्राम सिंघोला में कपड़े का व्यवसाय करता था तथा गणेशाबाई को उसके मायके से प्राप्त सम्पत्ति को उसके द्वारा विक्रय कर, स्वयं और अपने बच्चों गजानंद, महेश, कमलाबाई एवं भगवति के नाम पर ग्राम सिंघोला और परसगिरी में जमींन खरीदी गईं थीं, जो उनकी स्वअर्जित सम्पत्ति है।
08/ उपरोक्त प्रतिवादीगण ने दिनाँक 27.05.2003 को उनका आपसी बँटवारा ग्राम के बुजुर्ग सदस्य एवं पंचों के मध्य होने से स्पष्ट रूप से इंकार किया है एवं किसी प्रकार की लिखा-पढ़ी से भी इंकार किया है। उन्होंने अतिरिक्त तहसीलदार महोदय के आदेश दिनाँक 04.01.2008 को पूर्णतः विधिवत् बताया है। उन्होंने वाद भूमि पर, जरहाराम के वारिशों का, जरहाराम की मृत्यु पश्चात् एवं पूर्व से स्वत्व एवं आधिपत्य चला आना , कहा है तथा उन्होंने अपने दादा लोगों के द्वारा 60 वर्ष पूर्व ही अलग-अलग गाँव में संयुक्त सम्पत्ति होने के कारण उनके अलग-अलग रहने के कारण सुविधानुसार आपसी मौखिक बँटवारा हो जाना कहा है। उन्होंने पंच दादाओं का संयुक्त रूप से रहना और संयुक्त परिवार की आय से सम्पत्ति, अन्य परिवार के सदस्यों के नाम क्रय किये जाने से इंकार किया है। उन्होंने वादीगण द्वारा झूठा वाद लाया जाना कहा है। प्रकरण में वाद-कारण उत्पन्न नहीं होना कहा है और वाद समयावधि से बाहर होना कहा है।
09/ साथ ही प्रतिवादी क्रमांक 1 से 14, 18 एवं 23 ने अपने जवाबदावा में विशिष्ट कथन किया है कि वादीगण और प्रतिवादीगण के नाम से ग्राम परसगिरी/सिंघोला में कुल 17. 14 हेक्टेयर भूमि तथा ग्राम कोरकोटी/सिंघोला में कुल 14.19 हेक्टेयर तथा ग्राम अरसबुड़ा बेलोदा में, कुल 6.97 हेक्टेयर भूमि, अर्थात कुल 38.30 हेक्टेयर अथवा 95.76 एकड़ भूमि, संयुक्त रूप से राजस्व अभिलेखों में दर्ज है, जो उनकी संयुक्त परिवार की सम्पत्ति है, जिसे पृथक से जवाबदावा के साथ अनुसूची अ, ब, स ,द के रूप में दर्शाया गया है। उपरोक्त भूमियों का उपभपक्ष के दादाओं ने 60 वर्ष पूर्व आपसी मौखिक बँटवारा कर लिया गया था , जिसमें ग्राम- सिंघोला, परसगिरी, की 17.14 हेक्टेयर भूमि दावा एवं थुनु तथा ग्राम- सिंघोला, कोरकोटी की 14.19 हेक्टेयर भूमि रत्तुराम, को प्राप्त हुई थी, तथा ग्राम अरजबुडा, बेलोदा की भूमि झरिहार को प्राप्त हुई थी, जिन्हें विस्तृत रूप से अनुसूची अ, ब, स, द में दर्शाया गया है। दावा के वारिसान तथा थुनुराम के वारिसान के बाहर रहने के कारण अकेले गंगाराम की उक्त सम्पूर्ण भूमि पर कास्त करता है। प्रतिवादीगण के पूर्वज जरहाराम को अनुसूची ”अ” की सम्पत्ति प्राप्त हुई थी, जिस पर वे काबिज कास्त रहे और उनका लगातार आधिपत्य चला आ रहा था। वादीगण द्वारा जिस वादभूमि को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति होना कहा जा रहा है, वह जरहाराम की स्वअर्जित सम्पत्ति है, जिस पर अन्य किसी उत्तराधिकारियों का कोई अधिकार नहीं है। उपरोक्त आधारों पर प्रतिवादी क्रमांक 1 से 14, 18 एवं 23 द्वारा वादीगण का वाद निरस्त किये जाने की प्रार्थना की गई है।
10/ प्रकरण में उभयपक्ष की ओर से प्रस्तुत अभिवचनों एवं दस्तावेजों के आधार पर निम्न वाद प्रश्न विरचित किये गये हैं, जिसके समक्ष उनका संक्षिप्त निष्कर्ष दिया जा रहा हैः-
वाद प्रश्न - निष्कर्ष -
01/ क्या ग्राम सिंघोला प.ह.नं. 26 तहसील-बालोद, जिला-दुर्ग स्थित ख,नं. 420/2, एवं 439, रकबा क्रमशः 0.17 एवं 2.18 हे कुल 2.35 हेक्टेयर भूखंड वादीगण एवं प्रतिवादीगण की संयुक्त परिवार की संपत्ति है ?
02/ क्या वादीगण क्रमांक 1 से 20 एवं प्रतिवादी क्रमांक 3 एवं 31 तथा वादी क्रमांक 21 से 29 तथा प्रतिवादी क्रमांक 29 क्रमश: 1/5, 1/5 अंश वादभूमि से बँटवारा कराकर पृथक कब्जा प्राप्त करने के अधिकारी है ?
03/ क्या अतिरिक्त तहसीलदार राजहरा द्वारा पारित आदेश दिनाँक 04.01.208 में विधि की सम्यक प्रक्रिया का पालन नहीं किये जाने से अवैध एवं शून्य घोषित किये जाने योग्य है ?
04/ क्या वादीगण अपने हिस्से पर आधिपत्य प्राप्त करने के पश्चात् प्रतिवादीगण के विरूद्ध हस्तक्षेप किये जाने से निषेधाज्ञा प्राप्त करने के अधिकारी हैं ?
05/ सहायता एवं व्यय
07/ क्या उभय पक्ष के जातिगत रिति रिवाज व प्रथा के अनुसार महिलाओं को पैतृक संपत्ति में हक व अधिकार प्राप्त होता है ?
12/ उक्त संबंध में वादीगण ने अपने वादपत्र में यद्यपि वादभूमि उनकी अविभाजित पैतृक संपत्ति होने के आधार पर, उसमें वादीगण का स्वत्व होने का अनुतोष अवश्य चाहा है, किंतु इस बावत वादपत्र में कोई अभिवचन नहीं किया है कि उनकी किस ग्राम में किस-किस भूखंड क्रमांक की किस-किस रकबे की सम्पत्ति है, एवं वह सम्पत्ति संयुक्त परिवार के रूप में किन-किन सदस्यों के नाम से वर्तमान में संयुक्त रूप से सम्मिलित है। साथ ही इस संबंध में वादीगण की ओर से कोई दस्तावेज भी प्रस्तुत नहीं किया गया है। ऐसी स्थिति में प्रथम दृष्टया यह अनुमान नहीं किया जा सकता कि वादी एवं प्रतिवादीगण की कोई संयुक्त सम्पत्ति थी। फिर भी चूँकि प्रतिवादीगण द्वारा अपने जवाब-दावा की कंडिका क्रमांक 16 के विशेष कथन एवं अनुसूची अ, ब, स के रूप में उपरोक्त सम्पत्तियों को उभयपक्ष की सम्पत्ति पूर्व में संयुक्त होना तथा 60 वर्ष पूर्व हुए आपसी मौखिक विभाजन में पृथक-पृथक गांवों में कब्जा के आधार पर काबीज-कास्त होना कहा है एवं उपरोक्त अनुसूची अ, ब, स की सम्पत्ति को उभयपक्ष के नाम से राजस्व अभिलेखों मे संयुक्त रूप से दर्ज होना, परन्तु रहन-सहन, खान-पान, एवं काबिज-कास्त पृथक-पृथक होने के कारण उसे आपसी विभाजन होना कहा है।
13/ वादी साक्षी गंगाराम (वा.सा.1) का कहना है कि उसने जिस सहमति के आधार पर सभी लोगों के अलग अलग कमाने खाने वाली बात बताई है, वह दादा परदादा के समय की है और उसे लगभग सौ साल से ज्यादा हो गया होगा। उक्त साक्षी ने आपसी सहमति की बात को उसके पिता और जरहाराम द्वारा बताया जाना कहा है। उक्त साक्षी के अनुसार उसके गाँव में उसने परदादा लोगों के समय से आपसी सहमति के आधार पर कमाने खाने के बारे में सुनना बताया है और साथ ही कहा है कि अब बताने वाले लोग नहीं हैं, अर्थात उक्त साक्षी के अनुसार वर्तमान में ऐसी किसी सहमति के आधार पर सभी लोगों द्वारा अपने अपने हिस्से में कमाने खाने के बारे में बताने के लिए कोई व्यक्ति जीवित नहीं बचा है। उक्त साक्षी स्वीकार करता है कि कोरकुट्टी की जमीन को प्रतिवादी गजानंद वगैरह के दादा परदादा वगैरह के कमाने के बाद, भैयालाल एवं दत्तुराम एवं उसके बाद, उनके वारिस लोग द्वारा कमाने खाने की बात बताई गई है। महत्वपूर्ण रुप से उक्त साक्षी के अनुसार प्रतिवादी गजानंद वगैरह एवं उनके वंश जों केा कमाते करीब सौ वर्ष हो गया है। एक ओर तो यह साक्षी उसके पूर्वजों के आपसी सहमति के आधार पर कमाने खाने वाली बात बताता है, वहीं दूसरी ओर वह इस सुझाव से इंकार करता है कि पाँचों भाई कहाँ-कहाँ जमीन कमाऐंगे, इसको लेकर उनके मध्य आपसी सहमति बनी थी। उक्त साक्षी इस सुझाव से भी इंकार करता है कि सभी भाईयों के बीच केाई आपसी सहमति नहीं हुई थी, बल्कि आपसी बँटवारा हुआ था।
14/ वादीगण द्वारा यह दावा उभय पक्ष के मध्य बँटवारे को लेकर प्रस्तुत नहीं किया गया है , बल्कि ग्राम सिंघोला स्थित वादभूमि के पैतृक संपत्ति होने के आधार पर उसमें स्वत्व घोषणा हेतु प्रस्तुत किया है। उक्त संबंध में अब यह अभिनिर्धारित किया जाना है कि क्या उक्त वादभूमि वादीगण के अभिवचनानुसार कथित रुप से संयुक्त परिवार की संपत्ति से क्रय की गई भूमि थी अथवा नहीं।
15/ इस संबंध में वादीगण की ओर से वादभूमि का वर्ष 2003-04 की बी-1 किस्तबंदी खतौनी, खसरा एवं नक्शा की प्रति क्रमश: प्र.पी.1, प्र.पी.2 व प्र.पी.3 प्रस्तुत की गई है, जिनमें वादभूमि जरहाराम के नाम से बतौर भूमिस्वामी दर्ज है। उक्त दस्तावेजों के अतिरिक्त वादभूमि से संबंधित अन्य केाई दस्तावेज जैसे वादभूमि क्रय करने से संबंधित विक्रय-पत्र की प्रति अथवा नामंातरण पंजी की प्रति भी अभिलेख में नहीं है, जिससे यह अनुमान लगाया जा सके कि उक्त संपत्ति जरहाराम के नाम कैसे दर्ज हुई। वादीगण द्वारा परिवार के अन्य सदस्यों के नाम पर अन्य जगहों पर भी संयुक्त परिवार की संपत्ति से भूमि क्रय किए जाने का अभिवचन किया गया है, किंतु न तो परिवार के ऐसे सदस्यों के नाम अथवा ना ही क्रय की गई कथित भूमियों के संबंध में कोई स्पष्ट अभिवचन अथवा दस्तावेज प्रस्तुत किए गए हैं।
16/ वादीगण द्वारा अपने अभिवचन में इस बावत् केाई उल्लेख नहीं किया गया है कि यदि उनके अनुसार कथित रुप से संयुक्त परिवार का विघटन अर्थात बँटवारा आदि नहीं हुआ था तो आखिर उस संयुक्त परिवार का कर्ता व्यक्ति कौन था। वादीगण द्वारा उनके पूर्वज पाँच दादाओं में से किसी भी एक को संयुक्त परिवार का कर्ता के रुप में संबोधित अथवा अभिवचनित नहीं किया गया है और ना ही संयुक्त परिवार की संपत्ति की आय का कोई विवरण अथवा स्पष्टिकरण दिया गया है। वादीगण द्वारा संयुक्त संपत्ति की आय एवं व्यय का कोई ब्यौरा पेश नही किया गया है अथवा ना ही उनकी कथित संयुक्त परिवार की आय को किसी केंद्रक के रुप में एक जगह एकत्र हेाने के अभिवचन किए गए हैं और ना ही उक्त केंद्रक से संयुक्त परिवार के अन्य सदस्यों के नाम संपत्तियाँ क्रय करने का अभिवचन किया गया है, जबकि संयुक्त परिवार को प्रमाणित करने हेतु सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि सम्पत्ति संयुक्त रूप से दस्तावेजों में उल्लेखित हो तथा उस संयुक्त परिवार में कोई कर्ता हो और उसकी आय का वह कर्ता पूर्ण हिसाब-किताब रखते हुये, एक केन्द्रक के रूप में स्थापित करें एवं सम्पूर्ण परिवार के सदस्यों की उनका व्यय आपस में बांटे अथवा संयुक्त परिवार की सम्पत्ति को बढ़ाने हेतु संयुक्त परिवार के नाम से सम्पत्ति क्रय करें। प्रतिवादीगण की ओर से प्रस्तुत जवाबदावा के स्वीकृत कथनों को अथवा अभिवचनों को मान भी लिया जावे तो उससे भी, मात्र यह तथ्य प्रकट होते है कि उभयपक्षों के मध्य वर्तमान में उनकी कुछ पैतृक संपत्ति लगभग 95 एकड़ अभी भी संयुक्त रूप से राजस्व अभिलेखों में दर्ज है, परन्तु मात्र राजस्व अभिलेखों में संयुक्त रूप से नाम दर्ज हो जाने से ही यह नहीं माना जा सकता है कि वे अभी भी संयुक्त रूप से और संयुक्त परिवार के रूप में रह रहे हैं, जब तक कि परिवार का कर्ता एवं केन्द्रक एवं आय-व्यय को संयुक्त रूप से प्रमाणित नहीं किया जाता।
17/ उभय पक्ष की गोंड़ जनजाति के सदस्य होकर उनपर हिंदु उत्तराधिकार अधिनियम के प्रावधान लागू ना होना एक स्वीकृत तथ्य है। वादीगण द्वारा अपने अभिवचन में बताया गया है कि गोंड़ जनजाति में महिला सदस्य केा परिवार में पुरुष सदस्य ना होने पर हक व हिस्सा प्राप्त होता है, जबकि अन्य दशा में महिला सदस्य पैतृक संपत्ति से मात्र बालिग होने तक परवरिश एवं शादी ब्याह का खर्च ही प्राप्त कर सकती है। उक्त तथ्य को साबित करने का भार भी वादीगण पर है चूँकि उक्त बताए गए तथ्य गोंड़ जनजाति में चली आ रही प्रथा केा एक विधि के रुप में स्थापित होने के संदर्भ में है। इसलिए उक्त कथित प्रथा को विधि की मान्यता देने के लिए उसके प्रमाणन की आवश्यक ता है। उक्त संबंध में वादी गंगाराम (वा.सा.1) अपने प्रतिपरीक्श ण की कंडिका क्रमांक 17 में स्वीकार करता है कि राजस्व अभिलेखों में उनके चचेरे भाई और बहनों केा नाम शामिलात खातेदार के रुप में दर्ज है। उक्त साक्षी स्वीकार करता है कि उन लोगो ने बहनों का नाम कटवाने के लिए केाई आपत्ति नहीं की और वे लोग अपनी चचेरी बहनों का हक व हिस्सा को स्वीकार कर लिए थे, इसलिए उनका नाम राजस्व अभिलेखों से नहीं हटवाया गया। एक ओर तो वादीगण अपने अभिवचनों के माध्यम से गोंड़ जनजाति में महिलाओं केा पैतृक संपत्ति में पुरुषों के जीवित रहते केाई हक प्राप्त ना होना बताते हैं, वहीं दूसरी ओर वादी गंगाराम स्वयं स्वीकार करता है कि उसकी चचेरी बहन के राजस्व अभिलेख में नाम दर्ज होने अर्थात उक्त संबंधित भूमि में उसकी चचेरी बहन अर्थात महिला सदस्य का हक और हिस्सा था। उक्त अभिवचनों के संदर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि वादीगण द्वारा वादी पक्ष के रुप में पुरुष सदस्यों के अतिरिक्त महिला सदस्यों केा भी पुरुषों के सामान वादभूमि में उत्तराधिकारी होने के आधार पर स्वत्व एवं कब्जे का अनुतोष चाहा है अर्थात वादीगण के अभिवचनों एवं दी गई साक्ष्य तथा मांगे गए अनुतोष में ही परस्पर विरोधाभाश है। उसके अतिरिक्त उक्त बिंदु पर वादीगण की ओर से किसी भी ऐसे वरिष्ठ सदस्य का साक्ष्य नहीं कराया गया है जो कि उक्त तथ्य की पुश्टि कर सके। इसलिए वादीगण द्वारा यह तथ्य प्रमातिण नहंी कराया गया है कि उभय पक्ष के जातिगत् रिति रिवाज एवं प्रथा के अनुसार महिलाओं केा हक व अधिकार प्राप्त होता है अथवा नहीं। इस विवेचना के माध्यम से माननीय अपीलीय न्यायालय द्वारा प्रतिप्रेशित बिंदु क्रमांक 2 का निराकरण किया गया।
18/ वादीगण के अभिवचनानुसार वादभूमि संयुक्त परिवार की संपत्ति से क्रय किया जाना बताया गया है जबकि प्रतिवादी क्रमांक 1 द्वारा प्रस्तुत जवाब में इस बावत् स्पष्ट अभिवचन किया गया है कि वादभूमि उसके पिता स्व. जरहाराम की स्वअर्जित संपत्ति थी। वादी गंगाराम (वा.सा.1) स्वीकार करता है कि जरहाराम छुईखदान का ठेका कार्य करता था। उक्त साक्षी इस सुझाव से इंकार करता है कि वह उसका व्यक्तिगत् व्यवसाय था, किंतु उक्त साक्षी यह स्वीकार करता है कि जरहाराम के मरकाटोला में रहने के कारण, उसकी कोरकुट्टी की जमीन की देखरेख उसका लड़का गजानंद करता था। साक्षी यह भी स्वीकार करता है कि गजानंद कपड़े का व्यवसाय करता था, किंतु उक्त कपड़े का व्यवसाय भी शामिलात होना यह साक्षी बताता है। यद्यपि वादीगण द्वारा वादभूमि संयुक्त परिवार की संपत्ति से क्रय करना अवश्य बताया गया है, किंतु इस बावत् केाई अभिवचन नहीं है कि आखिर उक्त संपत्ति से क्रय दिनाँक से आय का विवरण कौन संधारित करता था। इस बावत् भी कोई साक्ष्य वादीगण की ओर से नहीं है कि यदि वादभूमि संयुक्त परिवार की आय से क्रय की गई थी तो जरहाराम ने वादभूमि से प्राप्त आय का हिसाब किताब अथवा हिस्सा उनके पूर्वज अथवा केद्रक अथवा कर्ता को दिया था अथवा नहीं। ऐसे किसी साक्ष्य अथवा अभिवचन के अभाव में केवल वादीगण द्वारा शामिलात संपत्ति होने के मौखिक साक्ष्य के आधार पर उनके पक्ष में केाई उपधारणा नहीं की जा सकती।
19/ माखनलाल (वा.सा.6) ने अपने प्रतिपरीक्श ण में स्वीकार किया है कि वादभूमि उसके जन्म के पूर्व ही क्रय किया गया था और वह नहीं बता सकता कि उक्त जमीन खरीदने कौन -कौन गया था और जमीन कैसे खरीदी गई थी। उक्त साक्षी वादभूमि जरहाराम के नाम से रजिस्ट्री होने की जानकारी होने अथवा ना होने के बारे में केाई स्पष्ट तथ्य नहीं बताता है। उक्त साक्षी के अनुसार वह नहीं बता सकता कि वादभूमि को क्रय करने के लिए किसने पैसा लगाया था और वह पैसा कहाँ से लगाया था। उक्त साक्षी यह स्वीकार करता है कि जरहाराम सफेद छुई बेचने का काम मरकाटोला में रहकर करता था, जबकि गजानंद कपड़ा बेचने का धंधा करता था। अंजोर सिंह (वा.सा.2) ने अपने प्रतिपरीक्श ण की कंडिका 10 में स्वीकार किया है कि जरहाराम द्वारा सफेद छुई का व्यवसाय सिंघोला और कोरकुट्टी जाने के बाद प्रारंभ किया गया था। महत्वपूर्ण रुप से उक्त साक्षी स्वीकार करता है कि जरहाराम सफेद छुई के व्यवसाय से आय का हिसाब स्वयं रखते थे और उसे खर्च करते थे। उक्त साक्षी स्पष्ट करते हुए कहता है कि जरहाराम परिवार का मुखिया है, किंतु फिर यह साक्षी जरहाराम द्वारा अपने छुई एवं कपड़े के व्यवसाय से वादभूमि क्रय करने के कारण उनकी स्वअर्जित संपत्ति होने संबंधी प्रतिवादीगण के सुझाव से स्पष्ट इंकार करता है।
20/ लखनलाल (वा.सा.3) अपने प्रतिपरीक्श ण में स्वीकार करता है कि भैयाराम की मृत्यु के पश्चात् उसके लड़के जरहाराम एवं उसका लड़का गजानंद सिंघोला के कोरकुट्टी की जमीन पर, काश्तकारी करते आ रहे हैं। उक्त साक्षी यह भी स्वीकार करता है कि भैयाराम और जरहाराम वगैरह वहीं अपना मकान बनाकर रहते चले आ रहे हैं और वहीं रहकर अपने बच्चों का शादी-ब्याह भी करते चले आ रहे हैं। यह साक्षी यह भी स्वीकार करता है कि जरहाराम ने सिंघोला कोरकुट्टी आने के बाद ही अपना छुही का व्यवसाय किया था और उस छुही के व्यवसाय से उसे आमदनी भी होती थी, जिसका हिसाब किताब स्वयं जरहाराम रखता था। उक्त साक्षी यह भी स्वीकार करता है कि गजानंद कपड़े का व्यवसाय करता था और उसकी आय से उसने संपत्ति को बढ़ाया भी था। दयालुराम (वा.सा.5) भी स्वीकार करता है कि भैयाराम 60 वर्ष पूर्व से ही कोरकुट्टी में निवास करता रहा और वहीं रहकर उसने अपना मकान वगैरह बनाया तथा अपने लड़कों का विवाह एवं अन्य संस्कार किया। भैयाराम की मृत्यु के पश्चात् जरहाराम और उसकी मृत्यु की पश्चात् गजानंद उक्त जमीन पर काबिज काश्त चला आ रहा है, जिस पर दूसरे गाँव के लेागों द्वारा कभी केाई आपत्ति नहीं की गई। महत्वपूर्ण रुप से उक्त साक्षी यह स्वीकार करता है कि जरहाराम उक्त जमीन से आय का हिसाब-किताब स्वयं रखता था और जरहाराम द्वारा छुई के व्यवसाय से जो आमदनी की गई थी और उसके संपत्ति क्रय की गई थी जो उसकी स्वअर्जित संपत्ति है, अर्थात यह वादी साक्षी वादीगण के अभिवचनों का स्वयं खंडन कर देता है और प्रतिवादी के इस बात की पुष्टि करता है कि वादभूमि जरहाराम की स्वअर्जित संपत्ति थी।
21/ अन्य वादी साक्षी शिवप्रसाद (वा.सा.6) का कहना है कि गंगाराम को बूढ़ा दादा, जिसे दादी के नाम से गाँव में लोग जानते थे। उक्त साक्षी के अनुसार भैयाराम, रत्तु, दावा, और पुन्नु पाँच भाई थे, जिनहें वह जानता है। उक्त साक्षी स्वीकार करता है कि उक्त पाँचों भाई और उनके वंश ज अलग-अलग जगह पर विगत् सौ वर्षों से रह रहे हैं। उक्त साक्षी स्वीकार करता है कि जरहाराम पीली मिट्टी के ठेके का काम करता था और गजानंद और उसके लड़के कपड़े बेचने का व्यवसाय भी करते थे। उक्त साक्षी के अनुसार वह नहीं बता सकता कि जरहाराम की एक पत्नि गणेश िया बाई को उसके मायके से जमीन मिली थी, जिसे उन्होंने बेचा था।
22/ प्रतिवादी गजानंद (प्र.सा.1) ने अपने अभिवचनों के अनुरुप शपथ पूर्वक कथन किया है कि उक्त साक्षी को स्वयं वादीगण की ओर से यह सुझाव दिया गया है कि वादभूमि को उसके पिता ने छुहीखदान की आय से क्रय किया था, जिसे यह साक्षी स्वीकार करता है। साक्षी गजानंद के अनुसार उसने अपने श पथ पूर्वक कथन में बँटवारे की बात लिखी है। यद्यपि उक्त साक्षी बँटवारा के समय स्वयं उपस्थित ना होना और उसकी लिखापढ़ी स्वीकार करता है, किंतु उसका कहना है कि उक्त बँटवारा मौखिक तौर पर हुआ था और वर्तमान में उक्त बँटवारा के गवाह स्वरुप केाई भी व्यक्ति जीवित नहीं है। उक्त साक्षी वादीगण द्वारा दिए गए इस सुझाव को स्वीकार करता है कि वह बँटवारा होना इस आधार पर कह रहा है कि उसी समय से अलग अलग गाँव में अलग अलग भूमियों पर उसके परदादा लोग अर्थात उभय पक्ष के पूर्वज काबिज होकर काश्त कर रहे थे। ऐसा ही कथन अन्य प्रतिवादी साक्षियों ने भी किया है। वादीगण ने भी उक्त तथ्य के खंडन स्वरुप कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गई है और उभय पक्ष की ओर से जिन भी साक्षियों ने अपनी मौखिक साक्ष्य प्रस्तुत की है, उन सभी ने प्रतिवादीगण के अभिवचन के अनुरुप ही कथन किए है कि उभय पक्ष के पूर्वज 60 वर्ष अथवा उसके पूर्व से ही अलग अलग भूमियों पर काबिज होकर काश्त करते थे, इसलिए यह निष्कर्ष लिए जाने का पर्याप्त आधार मौजूद है कि उभय पक्ष के पूर्वजों के मध्य पूर्व से ही आपसी मौखिक व्यवस्था अर्थात मौखिक विभाजन हो चुका था और उसी के अनुसार सभी लोग अपनी अपनी जगह पर काबिज काश्त थे। उपरोक्तानुसार उभय पक्ष की जो भी साक्ष्य आई है, उससे इस तथ्य की पुष्टि होती है कि उभय पक्ष के पूर्वजों के मध्य विगत 60 वर्ष के पूर्व से ही आपसी मौखिक विभाजन हो चुका था और जिसके अनुसार ही वे लोग अपने-अपने जमीन पर काबिज थे। किंतु इस बावत् उभय पक्ष की ओर से कोई स्पष्ट साक्ष्य नहीं दी गई है कि उक्त बँटवारे अथवा मौखिक विभाजन के अनुसार कौन-कौन सी कितनी कितनी भूमि , किस -किस को प्राप्त हुई थी। उभय पक्ष की साक्ष्य से यह स्पष्ट हुआ है कि जरहाराम छुही मिट्टी का व्यवसाय और प्रतिवादी क्रमांक 1 गजानंद कपड़े का व्यवसाय सिंघोला और कोरकुट्टी में रहने के दौरान करते थे। वादभूमि क्रय करने अथवा उसे जरहाराम द्वारा अर्जित करने के संबंध में समयावधि के बारे में केाई स्पष्ट साक्ष्य अभिलेख में नहीं है। ऐसे किसी स्पष्ट साक्ष्य के अभाव में इस बावत् केाई निष्कर्ष नहीं दिया जा सकता कि वादभूमि जरहाराम के नाम पर कब और कितने में क्रय की गई थी। तदनुसार माननीय अपीलीय न्यायालय द्वारा प्रतिप्रेशित किए गए बिंदु 3 से 6 की विवेचना की गई।
23/ अब प्रकरण में इस तथ्य का विचारण किया जाना है कि क्या दिनांक 27.05.2003 को उभयपक्ष द्वारा वादभूमि को भी संयुक्त परिवार की भूमि में शामिल कर, आपसी बंटवारा करने हेतु ईकरारनामा निश ्पादित किया गया था। यदि हॉं तो उसका प्रभाव क्या है ? वादी की ओर से इस संबंध में एक ईकरारनामा शीर्श क का सादे कागज पर लिखा गया विलेख प्र.पी.10 प्रस्तुत किया गया है। जिसमें यह लिखा गया है कि “हम समस्त दर्रो परिवार के खाताधार (1) श्रीमती त्रिलोबाई (2) सुखुराम (3) कचरूराम (4) रूकमणीबाई (5) गेंदीबाई (6) गजानंद (7) परसुराम एवं समस्त सम्मिलित खातेदार आज दिनांक 27.05.2003 दिन मंगलवार को ग्रामीण पंचों के समक्ष हमारी पैतृक सम्पत्ति (संपूर्ण सभी गांव) का बंटवारा किया गया, जिसमें हम सभी खातेदार, हिस्सेदारों ने जो बंटवारा किया गया, उसमें पूर्ण रूप से सहमत है, जिसमें पांच दादी लोगों को पांच बंटवारा किया गया और एक दादी छत्तरपति का भी विभाजन दो भागों में किया गया, उसमें हम सभी पूर्ण रूप से सहमत है। यदि उपरोक्त लिखें अनुसार उल्लंघन किया जाता है तो 20,000 (बीस हजार रूपये) जमा करने के बाद ही आगे का निर्णय के बारे में विचार किया जायेगा। ईकरारनामा लिख दिया समय पर काम में लाया जावेगा। मरकाटोला में गजानंद एवं देवकी के नाम से 14 एकड़ भर्री है, उसे सम्पूर्ण पैतृक खातेदारों की सहमति बेचा जाना है एवं बिक्री राशि में सभी का समान हिस्सा रहेगा।
24/ उपरोक्त ईकरारनामा दिनांक 27.05.2003 प्र.पी.10 में पंचों के रूप में दस व्यक्तियों के बाये ओर हस्ताक्षर हैं, जबकि हिस्सेदारों के रूप में रामसिंग, रामानंद, गजानंद, शंकरलाल, छन्नूलाल, कोदूराम, गेंदीबाई, रूकमणी एवं परसुराम के हस्ताक्श र है। उपरोक्त ईकरारनामा के गवाह लखनलाल (व.सा.4) द्वारा ब से ब भाग पर तथा दयालू द्वारा द से द भाग पर अपने हस्ताक्श र किया जाना स्वीकार किया गया है तथा उसे दिनांक 27.05.2003 को गजानंद और गंगाराम और उसके परिवार के सदस्यों के बीच उसे निश ्पादित करना कहा है। परन्तु इन अनुप्रमाणन साक्षियों ने यह इंकार किया है, कि उभयपक्ष के बीच किस-किस गांव के किस-किस खसरे और रकबे के भूमि के बीच बंटवारा हुआ था, वे नहीं जानते और उन्होंने उन भूमियों को कभी देखा भी नहीं है। यदि यह मान भी लिया जावे कि प्र.पी.10 का ईकरारनामा लिखा गया था, तो भी उस ईकरारनामा में सम्पूर्ण संयुक्त परिवार की भूमि के खसरा नंबर अथवा रकबा का वर्णन नहीं है। किस भूमि पर कौन व्यक्ति काबिज है अथवा कौन व्यक्ति भविष्य में काबिज होगा, इनका भी वर्णन नहीं है औन ना ही ऐसे अभिवचन वादी द्वारा अपने वाद-पत्र में किये गये है, जिससे उपरोक्त ईकरारनामा प्र.पी.10 कोई स्वत्व या कोई बंटवारा या किसी परिवार के सदस्य का हिस्सा उत्पन्न नहीं करता एवं महत्वहीन है।
25/ वादीगण द्वारा उनके पांच दादाओं के वंशजों को पृथक-पृथक रूप से दर्शाया गया है, परन्तु उनमें कौन कर्ता है, यह भी स्पष्ट नहीं है। प्र.पी.10 में जिन हिससेदारों के हस्ताक्श र है, वे उन पांच दादाओं के परिवार का प्रतिनिधित्व कर रहे है अथवा नहीं, यह भी कहीं स्पष्ट नहीं है। अतः बिना सम्पूर्ण हिस्सेदारों को शामिल किए, उपरोक्त बंटवारा अथवा ईकरारनामा प्र.पी.10 लिखा जाना , अधिकार विहिन है अथवा महत्वहीन है और उससे कोई विधि का बल स्थापित नहीं होता। जैसा कि वादी द्वारा स्वयं ही प्रत्येक सदस्य को बराबर का हकदार माना गया है। अतः कोई भी विभाजन या उससे संबंधित विलेख में सभी सदस्यों की सहमति आवश्यक है। उपरोक्तानुसार प्र.पी.10 का ईकरारनामा वादी अथवा उभयपक्ष के मध्य किसी भी बंटवारे को प्रमाणित नहीं करता।
26/ उपरोक्तानुसार वादीगण, उभयपक्ष के मध्य उनका संयुक्त परिवार का होना, संयुक्त परिवार की संयुक्त सम्पत्ति होना, संयुक्त परिवार की सम्पत्ति की आय से अन्य संयुक्त परिवार का व्यवसाय किया जाना और संयुक्त परिवार के व्यवसाय की आय से परिवार के सदस्यों के नाम से संयुक्त परिवार की सम्पत्ति क्रय किया जाना तथा उनका आपसी विभाजन हेतु संयुक्त परिवार में शामिल किया जाना प्रमाणित करने में पूर्णतः असफल रहे हैं। अतः वादीगण ना तो वादभूमि को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति के रूप में शामिल कर उसका बंटवारा अथवा विकल्प से कब्जा नहीं पाये जाने पर, कब्जा प्राप्त करने के अधिकारी हैं और ना ही वे विकल्प से कब्जा प्राप्त करने के पश्चात् प्रतिवादी क्रमांक 1 से 31 के विरूद्ध हस्तक्षेप किये जाने से स्थाई रूप से निषिधित करने हेतु निषेधाज्ञा प्राप्त करने के अधिकारी है। अतः वाद प्रश्न क्रमांक 1 का निर्ष्कष “प्रमाणित नहीं“ तथा वाद प्रश्न क्रमांक 2 का निर्ष्कष “नहीं“ वाद प्रश्न क्रमांक 4 का निर्ष्कष “नहीं“ तथा अतिरिक्त वाद प्रश्न क्रमांक 6 का निर्ष्कष “ईकरारनामा निष्पादित किया जाना प्रमाणित परन्तु उपरोक्त ईकरारनामा विधि सम्मत नहीं होने से प्रभावहीन है“ के रूप में दिया जाता है तथा अतिरिक्त वाद प्रश्न क्रमांक 7 का निर्ष्कष ”प्रमाणित नहीं“ के रूप में दिया जाता है।
वाद प्रश्न क्रमांक 3 का सकारण निर्ष्कष :-
27/ उपरोक्त वाद प्रश्न, अतिरिक्त तहसीलदार, राजहरा द्वारा जरहाराम के नाम से वादी-भूमि पर उसके वारिशों का नाम नामान्तरित किये जाने के विरूद्ध वादीगण द्वारा वाद कारण बताते हुये, यह प्रकरण प्रस्तुत किया गया है और नायब तहसीलदार, राजहरा द्वारा राजस्व प्रकरण क्रमांक 5/अ-6 वर्ष 2007-08 गजानंद वि. सुखीराम में पारित आदेश दिनांक 04.01.2008 को विधि एवं प्रक्रिया का पालन नहीं किये जाने के कारण शून्य घोषित किये जाने का अनुतोष मांगा है। उपरोक्त नामांतरण प्रकरण के मूल अभिलेख को तत्कालीन पीठासीन अधिकारी द्वारा अतिरिक्त तहसीलदार महोदय के न्यायालय में मंगाया जाकर, प्रकरण में संलग्न किया गया था। उपरोक्त नामांतरण कार्यवाही में वादीगण की मुख्य आपत्ति यह है, कि जरहाराम के नाम से जो ग्राम सिंघोला की विवादित भूमि थी, उस भूमि का दिनाँक 27.05.2003 को ही आपसी बंटवारा हो चुका था एवं उपरोक्त वादभूमि को संयुक्त परिवार की सम्पत्ति में शामिल किया जा चुका था और उसे विक्रय कर, बंटवारा किया जाना स्वीकार किया गया था। परन्तु इसके पश्चात् भी जरहाराम के वारिशों द्वारा हल्का पटवारी के पास नामान्तरण हेतु आवेदन देकर, अपना नाम नामांतरित कराने का प्रयास किया गया। जिस पर सुखुराम द्वारा आपत्ति करने पर हल्का पटवारी द्वारा, प्रकरण नायब तहसीलदार, राजहरा के न्यायालय में भेज दिया गया, जहां तहसीलदार महोदय द्वारा अनावेदकगण अर्थात् वादीगणों की ओर से किये गये आपत्ति पर प्रारंभिक तर्क सुनने के पश्चात् प्रकरण में, बिना साक्ष्य लिये और बिना सुनवाई का अवसर दिये सीधे नामांतरण का आदेश पारित कर दिया गया, जो प्राकृतिक न्याय एवं विधि एवं प्रक्रिया के विरूद्ध है।
28/ वादीगण की ओर से उनके विद्वान अधिवक्ता महोदय द्वारा अपने लिखित तर्क में इस संबंध में बोधसिंह ठाकुर अपीलार्थी बनाम छ.ग. राज्य 2001, मनीष-19, मंगलू विरूद्ध अगरसाय 1998, रानि.-13 (उच्च न्यायालय, सुखबीर सिंह वि. बृजपाल सिंह 1996 (2) विकली नोट्स उच्चतम न्यायालय, चुन्नीलाल वि. मोहन कुमार 2000 (1), मनीष-81 के न्याय दृष्टांत प्रस्तुत किये गये हैं, जिसमें माननीय उच्चतम एवं उच्च न्यायालय म.प्र./छ.ग. द्वारा न्यायदृष्टांत प्रतिपादित किये गये है, कि विधि एवं प्रक्रिया के बगैर पारित किया गया आदेश शून्यवत होता है। वादीगण की ओर से हल्का पटवारी के समक्ष की गई लिखित आपत्ति प्र.पी.4 दिनाँक 25.05.2007 अतिरिक्त तहसीलदार, राजहरा द्वारा नामांतरण के संबध में जारी इस्तहार प्र.पी.4-सी, अतिरिक्त तहसीलदार के समक्ष वादीगणों द्वारा दिया गया जवाब प्र.पी.5 एवं लिखित तर्क प्र.पी. 6, वादी अधिवक्ता महोदय द्वारा धारा 80 व्य.प्र.सं. की विधिक सूचना एवं तहसीलदार का आदेश दिनांक 04.01.2008 प्र.पी.9 प्रस्तुत किया गया है। जिसमें उन्होंने वाद भूमि पैतृक सम्पत्ति होने और संयुक्त परिवार की आय से क्रय किये जाने का तर्क देते हुये, समस्त आवेदकगण का नाम भी नामांतरित किये जाने का अनुरोध किया है।
29/ अतिरिक्त तहसीलदार, दल्लीराजहरा द्वारा प्रकरण क्रमांक 05/अ-6 वर्ष 2007-08, गजानंद विरूद्ध सुखुराम, आदेश दिनांक 04.01.2008 में पारित आदेश धारा 109,110 के तहत एक नामान्तरण का आदेश है, जो किसी संपत्ति पर उस पर अंकित भूस्वामी के मौन हो जाने पर उसके विधिक उत्तराधिकारियों का नाम नामांतरित किये जाने की प्रक्रिया मात्र है। वादीगण की ओर से प्रस्तुत आपत्ति बंटवारानामा दिनांक 27.05.2003 तथा उनके संयुक्त परिवार होने और संयुक्त परिवार की सम्पत्ति होने के आधार पर अपना नाम भी नामांतरित किये जाने का दावा किया गया है। जो पूर्णतः स्वत्व एवं उसकी घोषणा का विषय है, जिसके क्षेत्राधिकार राजस्व न्यायालयों को प्राप्त नहीं है। जैसा कि अतिरिक्त तहसीलदार के आदेश प्र.पी. 9 के आदेश से स्पष्ट है। अतः अतिरिक्त तहसीलदार दल्लीराजहरा द्वारा दिया गया आदेश प्र.पी.9 पूर्णतः विधि एवं प्रक्रिया अनुसार है क्योंकि यदि अनावेदकगण के द्वारा प्रस्तुत प्र.पी.10 के तथाकथित ईकरारनामा एवं संयुक्त परिवार के सदस्यों की सम्पत्ति और उनके आय से क्रय सम्पत्ति होने के तथ्य पर पक्षकार बनाकर, उनका साक्ष्य लेकर, गुण-दोश पर आदेश पारित किये जाते, तो यह पूर्णतः स्वत्व का प्रश्न निहित होने से अतिरिक्त तहसीलदार के अधिकार क्षेत्र के बाहर का विश य हो जाता और अनावश्यक प्रकरण के विचारण में समय लगता और प्रक्रिया एवं अधिकारिता विहिन आदेश पारित करना पड़ता।
30/ यदि उभयपक्ष के मध्य दिनाँक 27.05.2003 को ही आपसी बंटवारा हो चुका था, तब उन्होंने अतिरिक्त तहसीलदार के समक्ष धारा 178 भू-राजस्व संहिता के तहत बंटवारा का प्रकरण क्यों नहीं योजित किया, इस संबंध में कोई अभिवचन वादीगण ने नहीं किए हैं। इससे वादीगण के स्वच्छ हाथों से न्यायालय के समक्ष उपस्थित होना भी दर्शित नहीं होता है। उपरोक्त निर्ष्कष के अनुसार वाद प्रश्न क्रमांक-3 का निर्ष्कष “नहीं“ के रूप में दिया जाता है।
वाद प्रश्न क्रमांक 5 सहायता एवं व्यय:-
31/ वाद प्रश्न क्रमांक 1 से 4 एवं अतिरिक्त वाद प्रश्न क्रमांक-6 व 7 के निर्ष्कष के अनुसार वादीगण अपना यह वाद प्रमाणित करने में पूर्णतः असफल रहे हैं। अतः प्रकरण में निम्न आज्ञप्ति पारित की जाती है:-
अ/ वादीगण का वाद निरस्त किया जाता है।
ब/ उभयपक्ष अपना-अपना वाद-व्यय वहन करेंगे।
अधिवक्ता शुल्क प्रमाण-पत्र प्रस्तुत होने पर नियमानुसार देय हो।
तदानुसार आज्ञप्ति बनाई जावे।
दिनाँक - मार्च 2016
निर्णय खुले न्यायालय में हस्ताक्षरित,
(श्रीमती सीमा चंद्राकर )
सिविल न्यायाधीश वर्ग-दो
दल्लीराजहरा, जिला-बालोद (छ.ग.)
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